सागर

धरती पर फैला हुआ, जलचर का संसार।
सागर के  भीतर छिपा,  रत्नों का भंडार।।

जब तृष्णा न बुझा सके, पानी चारों ओर।
ये खारी नीर लहरें, तट पर करती शोर।।

बूंदों से सागर बना, सागर बादल होय।
धरती से दूर हो के, बूंदें बनके रोय।।

दिन-रात तटों पर रहता, लहरों का अनुरोध।
साहिल करती मौन से, तरंग का प्रतिरोध।।

सागर उठा उमंग से, पूनम वाली रात। 
उतरा चांद लहरों में, कहने अपनी बात।।

इतना विशाल हृदय है, सब करता स्वीकार।
धरती के हर वस्तु पर, करता है उपकार

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सरस्वती माँ शारदे

जय गणपति जय जय गणनायक!

अन्नदाता