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बांसुरी चली आओ राग ये बुलाते हैं!

इश्क की चलो कोई रस्म हम निभाते हैं। जिन्दगी चली आओ ख्वाब ये बुलाते हैं। प्रीत के बड़े नाजुक डोर से बधे वादे, सुर्ख सांझ साहिल पे आशियां बनाते हैं। अनकहे अनसुने से एहसास आंखों के बात वो अधूरे से रात दिन सताते हैं। और कुछ सिवा तेरे चाहता नहीं है दिल गूजरे हुए लम्हे याद बहुत आते हैं। बेसुरे अधूरे, सुर-ताल शब्द खाली से बांसुरी चली आओ राग ये बुलाते हैं।

कुर्सी के खातिर

कहना और सुनाना क्या है। गुज़रा दौर भुनाना क्या है। यूं गद्दी पर बैठे बैठे मन की बात बताना क्या है। रैलीयों पर रैलियां कर  जनता को बहकाना क्या है। नेता जी की बातों पर यूं लड़ना और लड़ाना क्या है। हर एक देश चले जनता से फिर यूं आंख दिखाना क्या है। इस कुर्सी के खातिर यूं तो  इंसानियत भुलाना क्या है।